
राजमाता जिजाऊ पूण्य तिथि 17 जून 2021
इस लघु लेख श्रृंखला में हम बात करते हैं महाराष्ट्र के विख्यात छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जिजाऊ की। मराठा साम्राज्य की जब भी चर्चा होती है, लोगो की ज़ुबान पर छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता की कहानियां आ ही जाती है। कहते है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है किन्तु मै कहती हूं बच्चों की सफलता की नींव बचपन में ही मां के द्वारा रखी जाती है। छत्रपति शिवाजी महाराज भी इस बात से अलग नहीं है। उनकी वीरता और शालीनता पूर्ण व्यक्तित्व की नींव उनकी मां जिजाऊ ने रखी। जिसने अपने शिवबा को उंगली पकड़ कर चलना सिखाया। एक महान योद्धा बनाया, साथ ही मानवता का पाठ पढ़ाया। यह उसी अनोखी मां की कहानी है।
बेटे और पति से जुदाई
शिवनेरी की तलहटी में जुन्नर की धूल भरी राह पर, तीन माह की गर्भवती घोड़ी पर सवार धूल उड़ाते आगे बढ़ रही थी। साथ मे सेविकाएं भी घोड़ी पर सवार रानीसाहेब का ध्यान रखते हुए चल रही थी। रानीसाहेब के चेहरे पर पसीने की बूंदे चमक रही थी। अभी पूरी तरह शाम नही हुई थी। वह घोड़ी को तेज दौड़ाने की कोशिश कर रही थी, साथ ही उसकी नजर आगे उड़ते धूल के गुबार में किसी को खोज भी रही थी। कुछ ही देर बाद उसे आगे आम्रवृक्ष के नीचे इन्तेजार करते नजर आए शाहजी राजे और उनके साथ छोटासा संभाजी। वे परेशान नजर आ रहे थे, जीजाबाई के पहुंचते ही उन्होंने जीजाबाई के थके हुए चेहरे की ओर देखकर हल्की मुस्कान के साथ तकरार की, “ऐसा कैसे चलेगा? इसी गति से चलते रहे तो हम तुम्हारे पिता के हाथों पड़ जाएंगे” शाहजी राजे जीजाबाई के पिता लखुजी जाधव की बात कर रहे थे, जो निजाम के शासन में सेनानी थे। जाधव और भोसले घराने का पुराना बैर था। शाहजी, जाधव से बचकर अपनी गर्भवती रानी और बच्चे को लेकर जुन्नर के क्षेत्र से सुरक्षित निकल जाना चाहते थे । किंतु जिजाऊ उनकी गति से अपनी गति नही मिला पा रही थी। लगातार हो रहे युद्ध के कारण शाहजी गर्भवती जिजाऊ को लेकर चिंतित थे।
रानी जिजाऊ शाहजी की चिंता को समझती थी । इसलिए उसने शाहजी से कहा आप अकेले आगे निकल जाए। वह नजदीक ही जुन्नर स्थित रिश्तेदार समधी विश्वास राव के यहाँ रुक कर जाएगी। शाहजी उसे अकेला छोड़कर जाना नही चाहते थे किंतु परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने हामी भरी। विश्वासराव को खबर मिलते ही वह उन्हें लेने पहुँच जाते है। वे ससम्मान उन्हें अपने घर ले जाते है। शाहजी राजे जीजाबाई को विश्वासराव की सुरक्षा में छोड़कर बेटे संभाजी को लेकर निकलते है।
वे बालक संभाजी को लेकर घोड़े पर सवार हो आगे बढ़ गए। जिजाऊ अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्हें जाते हुए देख रही थी। उसे दुख था कि वह अपने बेटे संभाजी को जी भरकर देख भी नही पाई, उसे प्यार नही कर पाई और शाहजी संभाजी बेटे को जिजाऊ के साथ छोड़ने के लिए तैयार नही थे।
पिता की लाड़ली जीऊ
जुन्नर पर रात की छाया फैल गई थी और गांव में दिए टिमटिमा रहे थे। कुछ लोग खाना खाकर आराम करने की तैयारी में थे। ऐसे में अचानक जुन्नर में चारों ओर से घोड़ों के टापों की खड़खड़ाहट से सभी अचंभित हो उठे। सारा गांव जाग गया। विश्वासराव तक खबर आई कि लखुजी जाधव ने पूरे गांव को अपने सैन्य से घेर लिया है और वह विश्वासराव के घर की ओर ही आ रहा है। विश्वासराव तुरंत तलवार खिंच कर आनेवाले खतरे का सामना करने के लिए तैयार हो गए।
विश्वासराव जैसे ही दरवाजे के करीब पहुँचे, सामने लखुजी जाधव हाथ मे नंगी तलवार लिए क्रोध में ललकार रहे थे कहाँ है, “वो भोसले? “विश्वासराव ने उनका मार्ग रोकते हुए कहा, ” पहले तलवार म्यान में रखिये फिर भीतर प्रवेश करें।” लखुजी जाधव बोले, “चुपचाप मेरे रास्ते से हटिये।” विश्वासराव ने शांत लेकिन गंभीर मुद्रा में कहा, “इस तरह सज्जनों के घर मे नंगी तलवार लेकर नही घुसा जाता।” जाधव अपनी जिद पर अड़े थे। वे बार बार “कहाँ है भोसले” पूछ रहे थे । इस विवाद में क्रोध के वशीभूत हो जाधव ने विश्वासराव पर तलवार उठाते हुए धमकी दी, “हट जाओ मेरे हाथ मे तलवार है।” तभी विश्वासराव ने भी म्यान से तलवार खिंची। दोनों एकदूसरे पर वार करते इससे पहले ही कमरे के भीतर से आवाज आई, “आबा”, तभी लखुजी जाधव ने आवाज की ओर नजर घुमाई, भीतर जीजाबाई खड़ी थी, जिसपर दिए कि आधी रोशनी पड़ रही थी। लखुजी का हाथ नीचे आ गया।
जीऊ ! कितनी यादें जुड़ी थी इस नाम के साथ ! लखुजी की लाडली बेटी, जाधावों के घर की शान थी वो। बुलढाणा के सिंदखेड़ में जन्मी, पिता से बचपन मे ही सीखी शस्त्र चालाने की कला, घुड़सवारी। माँ म्हालसाबाई से सुनी वीरगाथाएं, चारों भाइयो के बीच अकेली स्वाभिमानी बहन । लखुजी के हाथ से तलवार छूट गई। वह किसी भ्रमित की तरह धीरे धीरे उसकी ओर बढ़े। उनके होंठ थरथरा रहे थे। सारा बल इकट्ठा कर उन्होंने उसे पुकारा, “जीऊ..” “आबा..” कहते हुए जिजाऊ आगे बढ़ी और पिता को आलिंगन कर लिया। दोनों पिता पुत्री एकदूसरे की पीठ पर हाथ फेर कर जैसे दिलासा दे रहे हो।
माहौल को गमगीन होता देख विश्वासराव ने उनका आदर करते हुए बिठाया और हल्की फुल्की मजाक की। थोड़ा सहज होते ही लखुजी ने जिजाऊ से पुछा, “बेटी तुम कैसी हो? तुम ठीक तो हो न?” जिजाऊ ने कहा, “क्या पूछते हो आबा… !” वह कुछ कहते कहते रुक जाती है। आबा कहते है, “चुप क्यों हो गई बेटी, बोलो क्या कहना चाहती हो।” जीऊ की नजर पिता की नजरों से मिली और जीऊ की नजरों में एक अलग ही दर्द उभर कर आ गया। कुछ समझ में आये उससे पहले ही वह बोल पड़ी, “लड़की की जात जैसे हल्दी-गुलाल, कोई भी उठाए और किसी के भी माथे कभी भी चिपकाए। रंगपंचमी के दरबार मे तुम्हारे जीऊ की हल्दी ऐसे ही उधेड़ी गई थी, जो अभी तक हवा में घूम रही है।”
“आबा तुम्हारी बेटी का माथा सूना हो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा। इस जीऊ की कसम है तुम्हें।”
लखुजी राव ने तुरंत बेटी के मुंह पर हाथ रखा।
“नहीं बेटी! नहीं ऐसा मत कह, मुझे कसम में मत उलझा। जैसे मै तेरे खून से बंधा हूं, वैसे ही जाधवों के कुल से बंधा हूं। अब यह बैर मेरी मौत के साथ ही खत्म होगा।”
अपनी लाडली जीऊ के विनंती पर जाधव और विश्वास राव दूसरे दिन जिजाऊ को शिवनेरी छोड़ने के लिए जाते है उसकी वही रहने की व्यवस्था की जाती है।
जिजाऊ के निराले शौक
भव्यतम सौंदर्य लिए शिवनेरी गढ़ से जुन्नर का सौन्दर्य रमणीय दिखता था। सामने ही लेन्यान्द्री भी अनुपम था। जिजाऊ जी भरकर इस सौंदर्य का आस्वादन ले रही थी। साथ ही गर्भ में भावी राजा का विकास भी हो रहा था। अब सात माह पूर्ण हो रहे थे। एक दिन लक्ष्मीबाई ने जिजाऊ से पूछा, “क्या आपको कुछ विशेष खाने का मन करता है? आप कभी कुछ बताती ही नही।” जीजाबाई हल्के से मुस्कराई और कहा, “सच कहूं लक्ष्मीबाई, मुझे कुछ भी विशेष खाने-पीने का मन नही करता। बस लगता है, कमर में तलवार लटकाकर, घोड़े पर सवार होकर घुड़दौड़ करूँ। गढ़ पर बहनेवाली ठंडी हवाओं को खुप पीऊं। पहाड़ी की चोटी पर खड़े होकर नीचे के हरे भरे बाग आंखे भर कर देखूं। और देखो किस्मत ने मेरी सारी मुरादे पूरी की है।” लक्ष्मीबाई हैरत से देखती रही, इस निराली स्त्री को, जिसके शौक भी निराले ही थे।
न्यायप्रिय जिजाऊ
एक शाम रानीसाहेब का मन हुआ कि ‘टकमक’ (स्थान का नाम) की ओर घुमने जाए। जिजाऊ लक्ष्मीबाई और दासियों के साथ जैसे ही जाने के लिए निकले, सामने से सेवक विठु आए। रानीसाहेब ने पूछा, “क्या है विठु?”
विठु बोले, “रानीसाहेब क्या आप टकमक् की ओर घूमने जा रही है?”
रानीसाहेब, “हाँ ! क्या हुआ?” विठु ने नम्र किन्तु चिंता युक्त होकर कहा।” रानीसाहेब आपसे विनंती है, आज उधर मत जाइए, मावळती (जिधर सूरज डूबता है उस दिशा में) की ओर जाए।”
रानीसाहेब, “क्यों?”
विठु ने जवाब दिया, “रानीसाहेब किसी अपराधी को ‘कडेलोट'(पहाड़ी से गिराकर मृत्यु दंड देना) का फरमान है। उसी तरफ इसकी तामील होनेवाली है।”
“कौन है वो बेचारा?”
विठु, “मैं नहीं जानता।”
रानीसाहेब समझ गई यह कर्तव्य से बंधा, नही बतायेगा। उसने विठु से कहा,
” विठु जाओ और विश्वासराव को हमारे पास भेजो। विठु तुरंत हुक्म की तामील करने निकल गया। थोड़ी ही देर बाद विश्वासराव बुजुर्ग हनुमंते के साथ जिजाऊ के सामने उपस्थित हुए। दोनों ने रानीसाहेब को मुजरा किया।
जीजाबाई ने पूछा, “आज किसे कडेलोट(पहाड़ी से धकेलना) किया जा रहा है?”
विश्वासराव बोले, “किसने कहा?”
“हमे पता चला है, क्या यह सच है?” जीजाबाई ने पूछा।
विश्वासराव बोले “हां, यह सच है।”
“ऐसा क्या औराध किया था उसने?” नीचे की वाड़ी में उसने एक मन अनाज लूटा था।
आगे विश्वासराव बोले, “रानीसाहेब अकाल का समय है, ऐसे में चोरियां होने लगी तो पूरा मुल्ख पलायन करेगा।”
रानीसाहेब गंभीर होकर बोली, “विश्वासराव हम आपके शासन में दखलंदाजी नही करना चाहते, किन्तु क्या यह सच नहीं कि ऐसे अकाल में हम प्रजा को अनाज भी नही दे पा रहे, इसका दोष क्या हमपर नहीं आता?” ” चोरी का किसे शौक होता है।”
वविश्वासराव, “क्या हुक्म है आपका ?”
जीजाबाई, हुक्म कैसा आपसे विनंती है, “जब तक हम इस सिहंगढ़ पर है किसी को यहां से धकेला न जाय।” “जैसी आज्ञा” कहकर विश्वासराव निकल गए। हनुमंते ने जिजाऊ की ओर देखकर कहा, “आपके कारण बिचारे की जान बची।” जिजाऊ ने विठु की ओर मुस्कुराकर देखा और कहा,
“इसका श्रेय तो विठु को जाता है।” विठु संकोच करते हुए कहता हैं, “
“नहीं! नही! रानीसाहेब सच तो यह है कि उन्होंने ही मुझे आप तक यह बात पहुंचाने के लिए कही थी।”
दोपहर को जब वह अपराधी रो रहा था तभी हनुमंते ने कहा था कि “यह बात रानीसरकार तक पहुंचे तो इसकी जान बच सकती हैं।”
“देखा लक्ष्मीबाई, हमारे लोग कैसे दाँव खेलते है।” रानीसाहेब के हंसते ही सभी हंसने लगे।
क्या इस दुनिया में देव हैं?
एक दिन अचानक जिजाऊ को अपने पिता लखुजी जाधव तथा तीनों भाइयों के दौलताबाद के सुल्तान द्वारा दरबार मे ही धोखे से मारे जाने की खबर मिलती हैं। वह स्तब्ध रह जाती है इस दुख से। उसके चेहरे पर एक हंसी आ जाती है, शुष्क शब्द होंठों से बाहर निकलते है, ” आबा नहीं रहे अब हमारा मायका खत्म हो गया। हमारे कुशल कर्मों पर स्वजनों ने ही परिजनो के लिए पानी फेर दिया। हम जिनके दरबार के नौकर, वो हमारी लड़कियों को भगाकर ले जाते हैं, जिनके बल पर सुल्तानी खड़ी रहती है उस जाधव की हत्या सुल्तान के दरबार मे होती हैं! ” कहते कहते जीजाबाई जोर से चींख पड़ी, “विश्वासराव क्या इस दुनिया में देव हैं?” वह नीचे की ओर झुकते झुकते बेहोश होकर गिर गई।
कई दिनों तक वह इस सदमे से उभर नही पाई। लक्ष्मीबाई ने एहसास कराया कि उसके गर्भ में नया जीवन है उसके लिए उसे जीना होगा। और वह सदमे से उभरने लगी।
सच्ची प्रजापालक
शिवाजी 2 वर्ष का हो रहा था। और 2 वर्ष से जुन्नर में बारिश नही हुई थी। चारों ओर सुखा पड़ा था। इन दो वर्षों में गांव के गांव वीरान हो गए थे। लोग पलायन कर गए थे। चारों ओर भूखे कंगाल और कंकाल नजर आते थे। भूखे पशु भी इधर उधर भटक कर मर रहे थे। पक्षी भी सारे इस आसमान को छोड़कर चले गए थे, बस चील, कौवें और गिद्ध मांस पर मंडराते थे। सिंहगढ़ पर भी पानी की किल्लत थी। कुछ ही लोग वहां थे। गढ़ के दरवाजे सदा बंद रखे जाते थे। भूखी जनता का नैतिक पतन हो रहा था। चोरी, लूटमारी, डकैती आम हो गई थी। गढ़ पर रहनेवालों की आंखे आसमान की ओर टकटकी लगाए रहती, कभी ये पानी बरसेगा।
और एक दिन बादल गरजने लगे। गड़गड़ाहट के साथ बारिश शुरू हुई। सबके चेहरों पर खुशी की लकीर खींच गई। जीजाबाई ने विश्वासराव से कहा, “लगता है संकट टल गया। शायद इस वर्ष मनमुताबिक बारिश होगी।” विश्वास राव बोले, ” ऐसा दिख तो रहा हैं ” जीजाबाई बोली, “क्या मतलब, क्या यह बारिश नही थी, अब क्या हुआ?” रानीसाहेब बारिश तो हुई लेकिन खेतों की जमीन जोतेगा कौन ?” “कौन मतलब?” जो है, वो,” विश्वासराव, “जुन्नर की आधी बस्ती तो यही गढ़ पर है।” रानीसाहेब बोली, “तो! गढ़ खाली कर नीचे जाएंगे।” विश्वासराव को आश्चर्य हुआ, “आँ!” जीजाबाई बोली, ” हाँ, जब तक मुल्क छोड़कर गए लोग वापस नही आ जाते , उनके घर मे वापस आने तक उनके घरों की देखभाल आपकी जिम्मेदारी है और हम सब नीचे जाएंगे उनकी जमीनों को हम सब जोतेंगे। उसमे बीजे भी बोयेंगे। “
यह सुनते ही गढ़ पर रह रहे सभी के चेहरे खुशी से चमकने लगे। सब मे उत्साह का संचार हुआ। सभी ने नीचे तलहटी में जाने की तैयारियां शुरू की।
जुन्नर के वाडे में चहलपहल बढ़ गई। सुखी घास घरों पर जमी थी उसकी सफाई हुई। भटके हुए जानवरो और लोगों को इकट्ठा किया गया। गढ़ पर के लोहारो ने लोहे से खेती के लिए नांगर और औजार बनाना शुरू किया। देखते देखते सालभर में उनकी मेहनत भी रंग लाई। चारों ओर हरियाली छाई। गांव छोड़कर गए लोग धीरे धीरे फिर वापस आकर बसने लगे। इन सभी कार्यों का बाल शिवाजी के मन पर भी संस्कार हो रहा था।
स्वाभिमानी जीजाबाई
कुछ वर्षों बाद शाहजी को विजापुर सल्तनत ने पुणे की जागीर दी थी। शाहजी राजे ने अपने विश्वस्त सेवक दादोजी को जीजाबाई के पास भेज उन्हें पुणे में ले जाकर बसाने की जिम्मेदारी दी। वे उम्र में बुजुर्ग और अनुभवी भी थे। उनके आते ही जीजाबाई ने उन्हें स्वयं मुजरा किया तथा शिवाजी को भी करने लगाया। जीजाबाई स्वाभिमानी थी किन्तु अहंकारी नहीं। शिवबा को वह जो संस्कार देना चाहती थी वह स्वयं आदर्श रूप में प्रस्तुत करती थी।
जब वे जुन्नर छोड़कर पुणे पहुँचे। वहाँ की उजड़ी अवस्था किसी पुरातन शहर में प्रवेश करने का आभास दे रही थी। जगह जगह भिखरे खंडहरों के अवशेष अपने पूर्व की वैभवता बायान कर रहे थे। नदी किनारे झोपड़िया बनाकर रहनेवाले लोग इतने बड़े दल को आश्चर्य से देख रहे थे। दादोजी पंत खाली मैदान देखकर इशारे से दल को रोकते हैं। बालक शिवाजी चारो ओर नजर घुमा कर देख रहा था। जहां खंडहर ही खंडहर नजर आ रहे थे, शिवाजी ने आश्चर्य से अपनी मां से पूछा, “क्या यह पुणे है?”
मां ने कहां, “हाँ” शिवा बोला, “लेकिन ! यहां तो आपने सिवा कोई भी नजर नहीं आरहा।”
“आएंगे, हम बुलाएंगे तो सब आ जाएंगे।”
दूसरा प्रश्न आता है, “हम रहेंगे कहाँ? कहाँ है वाड़ा?”
जिजाऊ ने जवाब दिया, ” वाड़ा जानकर नही रहते राजे! बड़े लोग खुद वाड़ा निर्माण करते है।”
जीजाबाई के जवाब शिवाजी को भावी राजा के रूप में निर्माण करने के जैसे एक एक पिलर थे। साथ ही वह नए पुणे की नींव भी रख रही थी।
जीजाई के जीवन के यह प्रसंग उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आदर्श मानवतावादी पहलुओं को उजागर करते है। किन्तु इन सभी प्रसंगों से भी अधिक महत्वपूर्ण प्रसंग उनके जीवन का जो किसी भी स्त्री या कीसी भी माँ को प्रेरणा दे सकती है, जिस प्रसंग ने उनके जीवन मे आमुलागर परिवर्तन लाया। जिसने शिवाजी के मानवतावादी व्यक्तित्व की नीव रखी, वो प्रसंग इस प्रकार है-
जीजाबाई पुणे में रहकर शिवाजी को बड़ा कर रही थी, साथ ही पुणे की राजनीति, प्रशासन भी बड़ी ही सूझबूझ से संभाल रही थी। अब शिवाजी 10 वर्ष के हो रहे थे। इससे पहले शाहजी राजे केवल एक बार शिवनेरी पर कुछ समय के लिए आये थे तब शिवाजी केवल 2 वर्ष के बालक थे। उसके बाद शाहजी की खबरे जिजाऊ को मिलती रही पर वो नही मीले। इस बीच शाजी ने बंगलोर में आदिलशाह की नौकरी करते हुए तुकाबाई नामक स्त्री के साथ दूसरा विवाह भी रचा लिया था। जिससे उन्हें एक पुत्र भी हुआ। जीजाबाई का बड़ा बेटा संभाजी पिता के पास ही बड़ा हुआ जिसे देखने के लिए जीजाबाई हमेशा तरसती रही।
अब बारह वर्षों बाद जीजाबाई को शाहजी ने बुलावा भेजा था। जीजाबाई, पुत्र शिवाजी को लेकर दल बल सहित बंगलोर के सफर पर बड़े ही उत्साह के साथ नए सपने संजोए निकलती है। बंगलोर के महल में पहुंच कर उसे लगता है जैसे उसका 12 वर्षों का वनवास खत्म हुआ हो। किन्तु जल्दी धरातल की सच्चाई से उसका सामना होता है। किंतु वह बिखरती नही बल्कि और मजबूत होती है।
एक रात जिजाऊ देखती है शिवजी और संभाजी दोनों अपने बिस्तर पर नही हैं। वह परेशान हो जाती है आखिर यह दोनों बच्चे आधी रात को कहां चले गए। वह सेवक को बुलाकर उन्हें ढूंढने के लिए भेजती हैं। थोड़ी ही देर में सेवक दोनों बच्चों को लेकर आता हैं। जीजाबाई के पूछने पर सेवक बताता है कि दोनों नाच महल में होने वाले नृत्य गान को बाहर से ही झाँककर चोरी छुपे देख रहे थे। जिजाऊ ने सुना तो क्रोध से शिवजी को डांटने लगी, ” किस्से पूछकर गए थे?” “तुम्हे कहा था न कि इस तरह रात में बाहर के चौक में जाना नही।” “तुम बिन पूछे रात में चोरी चोरी नाच गाना देखने गए तुम्हे शर्म नही आयी।” जिजाऊ का आवाज क्रोध में चढ़ गया था। शिवाजी डरकर रोने लगा। तभी आवाज सुनकर छोटी रानी तुकाबाई वहां पहुँच गयी। उसने बीच मे हस्तक्षेप करते हुए कहा, “रानीसाहेब नाचगाना देखा तो क्या हुआ? राजा के बेटे हैं, ये नाच गाना नही देखेंगे तो और कौन देखेगा?” जीजाबाई उसे हाथ जोड़कर कहती हैं, “तुम हमारे इस मामले से दूर ही रहो। ऐसा काम तुम्हे चलता होगा, मुझे नही चलता।”
यह सुनकर तुकाबाई गुस्से में तुनककर कहती है, “यह संस्कार बच्चों में नही टिक पाएंगे। ऐसा ही लगता है तो बच्चों से कहने की बजाय खुद राजे से क्यों नही कहती।”
जीजाबाई कहती है, “सच में उन्हें बताना होगा। जिस विहार में बच्चे बढ़ रहे होते है, उस घर कैसा व्यवहार करना चाहिए यह बड़ों को समझना चाहिए।”
तुकाबाई को जीजाबाई का यह स्वाभिमान चुभ गया था। दूसरे दिन मौका देख कर उसने इस बात की शिकायत शाहजी राजे से कर दी। उसने शाहाजी राजे को रातवाली घटना पूर्ण विवरण सहित बताकर कहा,
“रानीसाहेब को यहां के संस्कार पसंद नहीं, उन्हें लगता है कि शिवाजी इस वातावरण में बिगड़ जाएगा।”
आगे और कहती है, की “शिवाजी को यहां रहना है तो राजे को अपनी आदते बदलनी होगी।”
यह सुनकर शाहजी राजे गंभीर होकर कहते हैं, “हमारी अब उम्र हो गयी है, हमारी आदते बदलना कठिन है। यदि रानीसाहेब को ऐसा लगता है कि हमारे सहवास में शिवाजी राजे बिगड़ जाएंगे तो वे खुशी से शिवाजी को लेकर यहाँ से चली जाय।
जीजाबाई इस घटना के बाद गंभीरता से चिंतन कर निर्णय लेती है। उसके शिवाजी उज्वल भविष्य के लिए यही निर्णय सही होगा कि वह शिवाजी को लेकर पुणे वापस चली गई। किसी भी तरह बुरे संस्कारों का प्रभाव उसपर न पड़ सके। वह राजा को अपना निर्णय सुनाती है। वे उसे इसकी अनुमति भी देते हैं। शाहाजी राजे को शिवाजी के दूर जाने का दुख तो होता है किंतु वे भी जिजाऊ से कहते हैं कि “मैं इस निर्णय से इसलिए सहमत हूँ क्योंकि मैं भी चाहता हू की शिवाजी तुम्हारी देख रेख में पलकर अच्छा इंसान बने। एक बेटे को मैं पालूंगा दूसरे को तुम।” देखते हैं कौन क्या होता है।
इस तरह जीजाबाई शाहजी से हमेशा के लिए दूर हो गई। उसने शिवाजी को न केवल वीर योद्धा, कुशल शासक बनाया बल्कि एक अच्छा इंसान भी बनाया।
जिजाऊ का पूर्ण जीवन संघर्षमयी वीर गाथा है जो हर नारी हर माँ के लिए आदर्श प्रस्तुत करती है।
शिवाराजे वाहक लेखक: प्रीतममहतो
प्रदेश अध्यक्ष छत्रपति शिवाजी सामाजिक संगठन बिहार