
पहचान को पिरोना चाहता हूं शब्दों में,पहचान को गढ़ना चाहता हूं अक्षरों की माला में ।
आखिर! क्या अहम भूमिका हैं पहचान की इंसान की व्यक्तित्व की जीवन में
क्या,औधा,पद और प्रतिष्ठा का सीधा संबंध हैं पहचान से ।
वो,कहते हैं ना
खुद की जब तक कोई पहचान नहीं होती ।
कोई भी मान सम्मान नही देता
चाहे,समाज हो या हो रिश्तेदार या फिर
दोस्त या कोई जानने वाला ।।
पहचान बिन,अस्तित्व भी आ जाता हैं खतरे की निशानी में ।
इसलिए, खुद की पहचान का
खुद के दम पर होना
खुद की हस्ती के लिए अति आवश्यक हैं ।।

पहचान
शब्दों को पिरो
मैं लेखनी की माला में
कागज़,कलम और दवात के जरिए
पहचान गढ़ने चली हूं ।
जज़्बात, हौंसला, नेक नेयती
सच और ईमानदारी को समर्पित
मन की शुद्धता के माध्यम से
पहचान खुद के नाम करने निकली हूं ।
शब्दों को पिरों
लेखनी की माला में खुद की पहचान
गढ़ने चली हूं
प्रसिद्धि,वाहवाही और तालियों की गड़गड़ाहट की ध्वनि
से हासिल सुकून और चैन को मन में
रमाने चली हूं
शब्दों को पिरों लेखनी की माला में
खुद की पहचान गढ़ने चली हूं
नाम खुद का
जर्रे जर्रे में हो जाए शामिल
उसका कुदरत को पैगाम देनी चली हूं
हां!
मैं,पहचान गढ़ने चली हूं
सुगंध जैसे पुष्प की
करती हैं मन को मोहित
उस सुगंध की भांति जग के हर प्राणी के मन को
अपने नाम करने निकली हूं
हां!
मैं,शब्दों के जरिए
पहचान खुद के नाम करने निकली हूं
खुद के नाम करने निकली हूं
स्नेहा कृति
( रचनाकार) कवित्री
कानपुर U.P.