ददुआ डकैत कैसे बना एक रिपोर्ट,शोषितो के लिए मशीहा और सामन्तों के लिए दस्यु सरदार

:रिपोर्ट रणधीर पटेल:
शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ The Robinhood of Bundelkhand जयंती 23/07/2023
जन्म: सितंबर 1955 देवकली गांव कर्वी (उत्तर प्रदेश)परिवार:: दो भाई स्वभाव: शांत चित्त एक 22 साल के युवा को पारिवारिक विवाद एवं जातिवादी सोच ने इस कदर तोड़ दिया कि सार्वजनिक जीवन की जिंदगी से विमुख होकर जंगल का रास्ता अख्तियार कर लिया था।
सन 1980 के लगभग की बात है,

यूपी के चित्रकूट के देवकली गांव में जन्में शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ ने सबसे पहले 1975 में अपराध को अंजाम दिया था। ददुआ ने हथियार अपने पिता के अपमान व हत्या का बदला लेने के लिए उठाए थे। बताते हैं कि उसके पिता को पड़ोसी गांव के दबंग ने गांव में निर्वस्त्र कर घुमाया था फिर बाद में उनकी हत्या कर दी थी।

शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ जी का जन्म उत्तर प्रदेश के चित्रकूट के देवकली गांव में राम पटेल सिंह के घर में हुआ था। ददुआ जी का असली नाम शिवकुमार पटेल था, जिसकी मंदिर में लगी मूर्ति और पुलिस रिकॉर्ड में सामने आई फोटो के अलावा किसी ने झलक तक नहीं देखी थी।
गांव में पारिवारिक विवाद था। पारिवारिक विवाद सामान्यतः सभी के साथ कभी न कभी छोटा मोटा होता रहता है लेकिन ददुआ के परिवार के साथ जिस तरह का वर्ताव जगन्नाथ एवं उसके कुछ ब्राह्मण साथियों ने मिलकर किया था,
वह अत्यंत ही घृणित एवं अमानवीय कृत्य था।
पारिवारिक विवाद में जगन्नाथ एवं उनके चार-पांच ब्राम्हण दोस्तों ने मिलकर ददुआ के पिता को पूरे गांव में घुमाया और बेरहमी से कत्ल कर दिया था।
सामन्तों द्वारा शिव कुमार पटेल के पिताजी पर लाठी डंडा फरसा से शरीर पर इतना बार किया गया था कि एक सामान्य इंसान को यह सारा कुछ देखकर रूह कांप जाएगा।
लेकिन इन वहशी दरिंदों को यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई कि इनके जाने के बाद इनके परिवार का क्या होगा?
ददुआ की उम्र लगभग 20 -22 वर्ष रही होगी। उनके छोटे भाई बाल कुमार पटेल अपने पिता पर ही आश्रित थे।
सामन्तों ने एक झटके में ही हँसता खेलता परिवार को पलक झपकते अनाथ कर डाला।
इस जघन्य हत्याकांड (ददुआ के पिता की मृत्यु) के पश्चात पुलिसिया कार्यवाई होती है लेकिन पुलिस में सामन्तों का दबदबा होने के कारण बात वहां भी एक पक्षीय जाते हुए महसूस हुई। फिर भी लोग हार नही माने। एक ओर पुलिस करवाई तो दूसरी ओर सही न्याय के लिए समाज के लोग न्यायालय का रुख कर लिए थे। लेकिन शोषित समाज को हर जगह सामंती व्यवस्था रहने के कारण समुचित न्याय नही मिल पा रहा था। उसका परिणाम न्यायालय का रुख भी बिल्कुल निराशाजनक रहा। किसी भी प्रकार का सहयोग न्यायालय से नहीं मिला। शोषित समाज के लोग तत्कालिक वहां के स्थानीय सांसद और विधायकों से न्याय की गुहार किये, लेकिन वह भी कोई ज्यादा सकारात्मक परिणाम की ओर आगे नही बड़ रहा था।
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सामन्ती वर्चस्व के सामने पूरा शासन-प्रशासन न्यापालिका बेबस हो गया था।
फिर भी ददुआ अपने परिवार के साथ अपने गांव में शांति से रहना चाहते थे। यह बात सामन्ती कातिलों को पसंद नहीं आ रहा था। लेकिन जिन्होंने पिता की हत्या की, उनके ऊपर किसी भी प्रकार की कार्यवाही नहीं हुई बल्कि इससे भी आगे और भी प्रताड़ित किया जाने लगा ।
जुल्म का सिलसिला और आगे बढ़ता गया।
शिव कुमार पटेल अभी इन जख्मो से उबर भी नही पाए थे कि जगन्नाथ के बेटे लाल बहादुर भैंस चोरी का झूठा आरोप लगाकर शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ को जेल में डलवा दिया। पिता की हत्या बड़े भाई को जेल परिवार एक बार फिर गहरे संकट में फंस गया। एक बार फिर पुलिस का रवैया भेदभाव पूर्ण रहा। बिना तथ्यों की जांच किए चोरी एवं अन्य कई प्रकार की धाराएं लगाकर ददुआ को जेल में डाल दिया गया।
न्याय की सारी उम्मीदें खत्म। न्यायपालिका हत्यारों के पक्ष में थी। पुलिस की कार्यवाही किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं कर रही थी। भैंस चोरी के आरोप में जेल में डलवा दिया। इस बार उनका न्यायपालिका से विश्वास खत्म हो गया। न्याय की सारी उम्मीदें मर गई ।
बस यही से सामन्ती जुल्मों के खिलाफ इंतकाम की ज्वाला धधक उठी और शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ जेल से फरार हो जाते हैं।
यह सारी घटना उनकी जिंदगी को झकझोर कर रख देती है। वह खुद से सवाल करने लगे कि सामन्तों ने पहले मेरे पिता की हत्या करवा दी। फिर मुझे ही झूठे आरोप में जेल में डलवा दिए। हम शोषित वर्गो हेतु न्यायपालिका में न्याय नाम की कोई चीज नहीं बची है।
लेकिन उनका दृढ़ निश्चय था कि यदि शोषितों को न्यायालय से न्याय नहीं मिलेगा, इंसाफ के मंदिर से इंसाफ नहीं मिलेगा, तो अब मुझे ही न्यायालय बनाना पडेगा, शोषितों को न्याय करना होगा। ताकि आगे किसी भी सामन्तियो को शोषितों पर जुर्म करने से पूर्व हजार बार सोचना पड़े।
यहीं से शुरू होती है दस्यु सम्राट की नई जिंदगी।
जेल से भागने के बाद जब जंगल का रुख किया तो दिलो में दहकती सामंती आग को बुझाने हेतु, उन्होंने राजा रगौली के गैंग में शामिल हुए और राजा रगौली के मरने के बाद उस गैंग का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया।

जिन सामन्तों ने नजर के सामने निर्दोष पिता की बेरहमी से हत्या किया था, उन सभी को मौत के घाट उतार दिया। सम्राट का खौफ इस कदर था उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्यों में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।
विंध्य क्षेत्र एवं बुन्देलखण्ड में प्रभाव:
90वे के दशक की बात हैं जब इस क्षेत्र में सामंतवादी के कहर से गरीब किसान मजदूर वर्ग बहुत परेशान रहता था। जातिगत भेदभाव चरम पर था। सामन्ती लोग किसान एवं मजदूर को परेशान किया करते थे ।
लेकिन ददुआ के उदय होने के बाद इन लोगों को जैसे सांप सूंघ गया हो। गरीब और किसान कमेरा को जिस क्षेत्र में परेशान किया जाता था, उस क्षेत्र में ददुआ का पदार्पण हो जाता था। जिस वजह से उस क्षेत्र में गरीब किसान मजदूरों पर सामन्ती गुलामी काफी कम हो गयी थी। जिस वजह से इस इलाके में धीरे धीरे गरीब मजलुमो के बीच ददुआ का स्थान मसीहा के रूप में बनने लगा था।
दस्यु सम्राट ददुआ ने कभी किसी गरीब के साथ या कमजोर के साथ किसी भी प्रकार की वारदात नहीं की थी। बल्कि गरीबों मजदूरों शोषित वंचित के हक अधिकार के लिए हमेशा आगे खड़े रहे।
जंगलों में तेंदू पत्ता मजदूर गांव से या शहरों के जो मजदूर ठेकेदारों के कार्य करते थे, यदि उनकी मजदूरी समय पर नहीं मिली और ददुआ को खबर हो जाती थी तो उस धन्ना सेठ को सूचित करते थे। गरीबों का हक दे दे यदि उसने नहीं दिया है तो अपनी न्यायालय से उन्होंने न्याय करके गरीबों का हक अधिकार दिलवाने के कार्य किया करते थे। जितने लोग उनको जानते थे उनका कहना यही है कि एक सरल स्वभाव एवं मृदुभाषी व्यक्ति को न्यायालय और कलुषित समाज ने दस्यु बना दिया।
भले ही लोगों की निगाह में वह दस्यु थे लेकिन कभी भी वंचित समाज को उन्होंने नहीं सताया बल्कि इनके लिए सुरक्षा कवच बन कर उभरे थे।
ददुआ कुर्मी समाज से आते हैं। उनके जंगल धारण करने के बाद बुंदेलखंड में कुर्मी के साथ साथ सभी पिछड़ा दलित समुदाय का प्रभाव बढ़ा है।
दस्यु बनने के बाद उन्होंने हमेशा वंचित समाज को शिक्षित बनो संगठित रहो और संघर्ष करने का मंत्र दिया है। कभी अपने साथ आने का संदेशा उन्होंने नहीं दिया था। वह हमेशा समाज के लोगों को अपने स्रोतों के माध्यम से बोला करते थे, यदि तुम्हें सामाजिक एवं मानसिक शोषण खत्म करना है तो आप डॉक्टर बनो इंजीनियर बनो विधायक बने सांसद बनो कभी मेरे रास्ते पर मत आना, लेकिन अन्याय का विरोध पूरी ताकत से करना क्योंकि जुर्म करने वाले से ज्यादा जुल्म सहने वाला गुनहगार होता है। हमने जुर्म को खत्म करने की चुनौती दी है। क्योंकि हमारे साथ न्याय नहीं हुआ है।
जुल्म का सिलसिला
ददुआ के दस्यु बनने के बाद पुलिसिया जुर्म का सिलसिला इस कदर बढ़ता गया कि पूरे भरे परिवार को तहस-नहस कर दिया गया। घर को बर्बाद कर दिया गया। परिवार के सदस्यों को जेल में ठूस दिया गया।
उनके छोटे भाई बालकुमार एवं उनकी पत्नी के ऊपर फर्जी मुकदमे लगा कर जेल में डाल दिया गया। प्रॉपर्टी सीज कर दी गई।
ऐसा लगता था जैसे सामंती व्यवस्था ने पूरे परिवार को खत्म करने का सत्ता और न्यायालय ने कसम खा ली हो। कानून की निगाह में अपराधी ददुआ थे परिवार नहीं! जुल्म का सिलसिला परिवार के ऊपर बढ़ता गया। लेकिन बालकुमार जी इस अन्याय से टूटने की बजाय और मजबूत होते गए और जब जेल से छूटे तो उन्हें लगा यह हमारे साथ जो अन्याय हो रहा है। इस समाज के साथ ना हो। इसीलिए एक जन सेवक के रूप राजनीति में आना चाहिए और उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया। इसी सिलसिले में उन्होंने 2002 में चुनाव लड़ा लेकिन बहुत कम अंतर से हार गए। इसके बाद 2009 में मिर्जापुर से चुनाव लड़े और सांसद बने।
तब से अब तक बालकुमार पटेल जी समाज सेवा में लगे हुए और समाज को एक ही संदेश देते हैं कि अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करो किसी के साथ अन्याय मत करो लेकिन अन्याय का विरोध जरूर करो।
ददुआ के दस्यु का जितना नुकसान परिवार को हुआ, वही इससे कहीं ज्यादा फायदा शोषित वर्ग को हुआ। वह कभी घर तो नहीं आए लेकिन सूत्रों के माध्यम से परिवार को समाज को हमेशा संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने का संदेश दिया और बताया आप बच्चों को शिक्षित करो राजनीति में आगे आओ तभी समाज सेवा कर सकते हो। उसी का परिणाम है कि भाई बालकुमार एवं बेटे वीर सिंह भतीजे राम सिंह पटेल (उत्तर प्रदेश विधानसभा में सबसे युवा विधायक) राजनीति में आए और निरंतर समाज सेवा में लगे हुए हैं।

वर्तमान में बालकुमार एवं बेटे वीर सिंह भतीजे राम सिंह पटेल (विधायक पट्टी प्रतापगढ़ 2012 सबसे युवा विधायक) समाज के (मुख्यधारा से अलग लोगों) साथ अन्याय होता है तो यह कुशल प्रहरी के रूप में सामने खड़े होते हैं क्योंकि ददुआ का संदेश था अन्याय मत करना अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना।
राजनीतिक जीवन में भी रहकर किसी दल की विचारधारा से बँधे होने के बाद भी जब भी शोषित वंचित समाज के साथ अन्याय होता है तो बेटे वीर सिंह, भाई बालकुमार एवं भतीजे राम सिंह एक कर्मठ योद्धा की तरह खड़े होते हैं।
ददुआ का वंचितों के प्रति समर्पण: उन्होंने हमेशा गरीबों की मदद की है। यदि कोई बच्चा पैसे के अभाव में पढ़ाई नहीं कर पा रहा है उन्हें खबर मिल गई तो पढ़ाई का पूरा खर्चा देते थे । यदि कोई गरीब की बेटी शादी लायक है और वह शादी का खर्च नहीं उठा पाता था तो खुद अपने खर्च से शादी करवाते थे। यहां तक की उन्होंने कई सामूहिक विवाह समारोह का भी आयोजन करवाये थे। यहां तक कि उस सामूहिक विवाह में कन्याओं का सामाजिक रस्म स्वयं करते थे।
कुछ लोगों के अंदर एक भ्रांति बनी हुई है कि केवल कुर्मी या उसके समकक्ष जातियों का सहयोग करते थे तो मैं आपको बता दूं उनके पास तक यदि किसी सवर्ण जाति का भी संदेश पहुंचता था किसके साथ अन्याय हुआ है तो उसको हक दिलाने के लिए वह पूरा प्रयास करते थे और दिलवाकर रहते थे।
मध्य भारत में उनके समय के पहले जिस तरह की जुर्म वंचित समाज के साथ होती थी और जो लोग जुर्म करते थे जिस समाज के लोग गरीबों का हक अधिकार छीनते थे उनके लिए एक खौफ का नाम उभर कर आए थे । दहशत इस कदर थी जुल्म करने वाला चार बार सोचता था कि मैं किसी गरीब के साथ अन्याय करूं कि ना करूं। सार्वजनिक जीवन से भले ही विमुख हो गए थे लेकिन कभी भी शोषितओं की आवाज व हक अधिकार को दबाने का प्रयास नहीं किया।
बल्कि एक न्यायिक प्रहरी के रूप में वंचित समाज का सुरक्षा कवच बन कर उभरे थे ।
जिन्होंने अन्याय करना अपना हक अधिकार समझ लिया था उनके लिए दस्यु थे डकैत थे बदमाश थे। लेकिन गरीबों के लिए एक शोषित के लिए मसीहा थे।
एक बार किसी कार्यक्रम के सिलसिले में एक गांव में गए हुए थे पुलिस को सूचना मिल गई और चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया। कोई एक गन्ने के खेत में छुपे हुए थे जहां एक पत्थर जो काफी विशालकाय था उसके पीछे छुपे रहे लोगों का कहना यह है कि वह विशालकाय पत्थर हनुमान की मूर्ति थी और उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि आज मैं बच जाऊंगा तो यहां पर हनुमान का भव्य मंदिर बनवा दूगा। वह बच गए और उन्होंने मंदिर का निर्माण करवाया। लेकिन खुद के साहसिक निर्णय एवं आत्मबल की ताकत से वहां से बच निकले।
आज भी कर्वी बांदा चित्रकूट के क्षेत्र में वहां की गरीब जनता मजदूर उन्हें भगवान की तरह पूजती है। जनता के सहयोग से उनके नाम पर उनका खुद का मंदिर बना हुआ है। जहां उनके साथ उनकी पत्नी एवं माता भी हैं। लोग बड़े आदर भाव से एक समाज सेवक के रूप में मानते हुए उनके मंदिर में दर्शन करने जाते हैं। अपने कृत्य एवं सामाजिक सोच के माध्यम से दस्यु होने के बावजूद भी और समाज में स्थापित मानव की तरह पूजे जाने लगे हैं । लेकिन तब तक सशक्त समाज राजनीति के लिए बहुत बड़ा रोड़ा बन चुके ददुआ के खिलाफ हत्या की बिसात बिछाने लगी थी। अंततः परिणाम भी यही निकला कुछ अपनो के मुखबिरी और सत्ता की धमक ने 22जुलाई 2007 को इस वर्चस्ववादी युग का अंत हो गया।
ददुआ का सद्गुण ही है जो भाई बालकुमार एवं बेटे वीर को अपने रास्ते से दूर रख कर एक समाज सेवक के रूप में राजनीति करने की प्रेरणा मिली है। आज उसी का परिणाम है कि भाई बालकुमार एवं बेटे वीर भतीजा राम सिंह( बालकुमार के पुत्र) एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्थापित है। गरीबों वंचितों के प्रति जो सोच ददुआ की थी वही सोच भाई बालकुमार एवं बेटे वीर सिंह के अंदर भी है। योद्धा भाई, बेटे एवं भतीजे संविधान के दायरे में रहकर वंचितों की आवाज बुलंद कर उनके साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ एक चट्टान की तरह खड़े हुए हैं। जुल्म के खिलाफ एक सजग प्रहरी के रूप में समाज उनको याद करता रहेगा।
प्रभाव की जिंदगी हमने देखा तो नहीं है लेकिन सुना और महसूस जरूर किया। जब भी सामाजिक न्याय की बात आएगी एक सजग प्रहरी के रूप में समाज सेवक के रूप में न्यायाधीश के रूप में समाज आपको याद करता रहेगा।

कूर्मि कुल के वीर गरीबो शोषितो पिछडो के मसीहा शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ Robinhood

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