
उत्तराखंड उत्तराखंड राज्य का निर्माण सिर्फ एक प्रशासनिक फैसला नहीं था, बल्कि यह जन-जन के संघर्ष और बलिदान की कहानी है। इस पर्वतीय प्रदेश के हर गांव, हर शहर में कभी किसी माँ ने अपने बेटे को खोया, किसी पत्नी ने अपने पति को, तो किसी ने अपनी जवानी इस सपने को साकार करने में समर्पित कर दी। लेकिन इस पूरे आंदोलन में पाँच ऐसे नाम हैं, जिनकी प्रतिबद्धता और त्याग के बिना शायद उत्तराखंड का सपना अधूरा रह जाता — इंद्रमणि बडोनी, रंजीत सिंह वर्मा, हंसा धनाई, विवेकानंद खंडूड़ी और महावीर शर्मा।—
1️⃣ इंद्रमणि बडोनी — उत्तराखंड के गांधीतिहरी के अखोड़ी गांव में 24 दिसंबर 1925 को जन्मे इंद्रमणि बडोनी उत्तराखंड आंदोलन के आध्यात्मिक जनक कहे जाते हैं। गरीब परिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने शिक्षा और जागरूकता की मशाल थामी।वे भाषण नहीं, प्रेरणा देते थे — ऐसे शब्द बोलते कि भीड़ खुद जुट जाती।1980 में उन्होंने उत्तराखंड क्रांति दल की सदस्यता ली और राज्य निर्माण की लड़ाई को संगठित रूप दिया।साल 1988 में उनकी तवाघाट-देहरादून यात्रा ने आंदोलन को नई ऊर्जा दी। इसके बाद उन्हें “उत्तराखंड के गांधी” के नाम से जाना जाने लगा।1994 में 72 वर्ष की आयु में जब उन्होंने आमरण अनशन का ऐलान किया, तो पूरे देश की राजनीति हिल गई। मेरठ अस्पताल में जबरन भर्ती कराए जाने के बाद भी उनका इरादा नहीं टूटा।उनका संघर्ष, उनका संकल्प उत्तराखंड की चेतना में बस गया।18 अगस्त 1999 को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब भी उनकी आंखों में उत्तराखंड का सपना जीवित था।—
2️⃣ रंजीत सिंह वर्मा — देहरादून की आवाज़, आंदोलन का विवेकदेहरादून से उठी रंजीत सिंह वर्मा की आवाज़ पूरे पहाड़ में गूंजी।वे राजनीति के मंच से ज्यादा आंदोलन के मैदान में चमके।1994 के निर्णायक दौर में उन्होंने देहरादून की सड़कों पर आंदोलन को संगठित किया और लोगों को शांतिपूर्ण संघर्ष की राह दिखाई।रामपुर तिराहा और मुजफ्फरनगर जैसे नरसंहारों में जब आंदोलनकारी लहूलुहान हुए, तब भी वे डटे रहे।उनकी ईमानदारी और सादगी ने उन्हें हर वर्ग से जोड़ दिया।देवगौड़ा सरकार के समय वे उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति की ओर से दिल्ली में बातचीत करने पहुंचे — यह उनके नेतृत्व की मान्यता थी।उत्तराखंड बनने के बाद भी उन्होंने राजनीति से दूरी बनाए रखी।उन्होंने कहा था — “जिस दिन उत्तराखंड बनेगा, उस दिन मेरा मिशन पूरा होगा।”और उन्होंने अपना वचन निभाया।—
3️⃣ हंसा धनाई — आंदोलन की माँ, बलिदान की देवीउत्तराखंड आंदोलन में महिलाओं ने सिर्फ भागीदारी नहीं की, बल्कि इतिहास रच दिया।मसूरी की हंसा धनाई उन वीरांगनाओं में से एक थीं, जिन्होंने अपनी जान देकर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य लिखा।2 सितंबर 1994 — मसूरी का काला दिन।बिना चेतावनी के पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर गोलियां बरसा दीं।छह आंदोलनकारी वहीं शहीद हो गए, जिनमें हंसा धनाई भी शामिल थीं।उनके पति भगवान धनाई पहले ही गिरफ्तार किए जा चुके थे, पर हंसा जी ने पीछे हटने से इनकार किया।जब उनका शव घर लाया गया, तो 12 साल की बेटी को यकीन ही नहीं हुआ कि उसकी माँ अब नहीं रही।हंसा धनाई का सपना था — “ऐसा उत्तराखंड, जहां किसी बच्चे को रोज़गार के लिए पहाड़ छोड़ना न पड़े।”आज भी उनका नाम उस सपने की प्रेरणा है।—
4️⃣ विवेकानंद खंडूड़ी — विचारधारा से ऊपर उठता जननेताउत्तराखंड आंदोलन के दौर में जब अधिकतर राजनीतिक दल मौन थे, तब एक कांग्रेसी नेता विवेकानंद खंडूड़ी ने दल से ऊपर उठकर जनता का साथ चुना।उनकी स्पष्टवादिता और निर्भीक रवैये ने उन्हें आंदोलन का अग्रदूत बना दिया।पुलिस ने उन्हें बार-बार गिरफ्तार किया, बरेली सेंट्रल जेल में महीनों रखा।मुलायम सरकार के दौर में जब कई आंदोलनकारी गायब हो गए, तब खंडूड़ी छह महीने तक अंडरग्राउंड रहकर आंदोलन को दिशा देते रहे।उनकी पत्नी पुष्पा खंडूड़ी ने भी इस संघर्ष में बराबरी से योगदान दिया।खंडूड़ी ने दिखाया कि राजनीति तब सार्थक है जब वह जनता के दर्द को अपनी जिम्मेदारी माने।—
5️⃣ महावीर शर्मा — सत्य की मिसाल, साहस की आवाज़रामपुर तिराहा नरसंहार (2 अक्टूबर 1994) की भयावह घटना में सैकड़ों आंदोलनकारी पुलिस की गोली का शिकार हुए।कई गवाह डरे, चुप हो गए, लेकिन एक व्यक्ति ऐसा था जिसने सच बोलने का साहस किया — महावीर शर्मा।वे उस बस के चश्मदीद गवाह थे, जिस पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं।सीबीआई की जांच में जब उनसे पूछा गया कि “क्या बस में हथियार थे?”,उन्होंने कहा — “नहीं, बस में कोई हथियार नहीं था। पुलिस ने निहत्थों पर गोली चलाई।”राजनीतिक दबाव, धमकियाँ, समझौते — सब कुछ ठुकराकर उन्होंने सच्चाई का साथ दिया।उनकी गवाही ने न केवल कई निर्दोषों को बचाया, बल्कि पूरे आंदोलन को न्याय की दिशा दी।—निष्कर्ष: संघर्ष की मशाल आज भी जलती हैउत्तराखंड आज भले ही एक राज्य बन चुका हो, लेकिन इन पाँच क्रांतिकारियों की स्मृतियाँ हर पत्थर, हर धारा में बसती हैं।उनका संघर्ष सिर्फ भौगोलिक सीमाओं के लिए नहीं था, बल्कि पहाड़ की अस्मिता, स्वाभिमान और स्वावलंबन के लिए था।
आज जब कोई युवा अपने गांव में स्कूल बनते देखता है, जब कोई माँ अपने बेटे को नौकरी के लिए दिल्ली मुंबई गुरुग्राम नहीं भेजती, तो कहीं न कहीं — इन विभूतियों आत्मिक सुख मिलता होगा इंद्रमणि बडोनी, रंजीत सिंह वर्मा, हंसा धनाई, विवेकानंद खंडूड़ी और महावीर शर्मा
