

“बिहार की राजनीति: चारा, जाति और सत्ता का शतरंज”
बिहार की राजनीति हमेशा से ही सत्ता, जाति और भ्रष्टाचार के जाल में उलझी रही है। इस राजनीति के केंद्र में कभी डॉ. जगन्नाथ मिश्र जैसे नेता रहे, जिन्होंने अपने शासनकाल में राज्य की दिशा तय की, तो कभी लालू प्रसाद यादव जैसे नेता जिन्होंने उस दिशा को जनता की भाषा में बदल दिया।डॉ. जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमंत्री कार्यकाल में हुआ चारा घोटाला बिहार की राजनीति का वह काला अध्याय है जिसने पूरे देश को हिला दिया। सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये जानवरों के चारे के नाम पर निकाले गए, और भ्रष्टाचार का यह सिलसिला वर्षों तक चलता रहा। अंततः जब परतें खुलीं, तो मिश्र को चार साल की जेल और ₹2 लाख का जुर्माना भुगतना पड़ा।मगर इस घोटाले की कहानी में एक राजनीतिक मोड़ था — घोटाले के सूत्रधार माने जाने वाले जगन्नाथ मिश्र धीरे-धीरे परछाई में चले गए, जबकि लालू प्रसाद यादव को “चारा घोटाले का चेहरा” बना दिया गया। विडंबना यह रही कि बिहार की जनता ने लालू को दोषी नहीं, बल्कि “अपने वर्ग की आवाज” के रूप में देखा।लालू यादव आज भी बिहार में पिछड़ों और दलितों की आवाज माने जाते हैं। उन्होंने राजनीति को “जातीय विमर्श” का चेहरा बना दिया — जहाँ राजनीति का अर्थ केवल सत्ता नहीं, बल्कि सम्मान और प्रतिनिधित्व से भी था। वहीं दूसरी ओर, बिहार में धनाढ्य अगड़ी जातियों और पिछड़ी-दलित जातियों के बीच की खाई आज भी वैसी ही चौड़ी है, जैसी दशकों पहले थी।अब बारी आती है नीतीश कुमार की — एक कुर्मी नेता, जो खुद को “सुशासन बाबू” कहे जाने पर गर्व करते हैं। लेकिन नीतीश की राजनीतिक चालें आज एक दोराहे पर हैं। सत्ता में बने रहने की जुगत में उन्होंने कभी लालू के साथ गठबंधन किया, तो कभी भाजपा के साथ। इस रस्साकशी में वे बार-बार यह साबित करने की कोशिश करते रहे कि वे “सभी के नेता” हैं, लेकिन वास्तव में वे न किसी अगड़े के हुए, न पूरी तरह पिछड़ों के।अगर इस बार नीतीश कुमार ने राजनीति के चाणक्य नहीं बने, तो न सिर्फ सत्ता हाथ से जाएगी, बल्कि जेडीयू में भी उनका बर्चस्व खत्म माना जाएगा। बिहार की राजनीति की यह वह बिसात है, जहाँ हर चाल जाति, वर्ग और सत्ता के समीकरण से तय होती है — और यहाँ कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं, सिर्फ राजनीतिक अवसर स्थायी हैं।बिहार आज भी जातीय खाई में फंसा है, जहाँ लालू यादव प्रतीक हैं “प्रतिरोध के”, नीतीश कुमार प्रतीक हैं “संघर्ष और समझौते” के, और जगन्नाथ मिश्र प्रतीक हैं “भ्रष्टाचार और पतन” के।राज्य की राजनीति आज भी वही पुरानी कहानी दोहरा रही है — चेहरे बदलते हैं, लेकिन चालें वही रहती हैं।
