अर्नाल्ड डिक्स बोले, हिमालय के पहाड़ दुखी

  • अब तो मान लो, हिमालयी चट्टानों से छेड़छाड़ खतरनाक है।
  • घुईंयां छील रहे अपने वैज्ञानिक, जिनेवा से आयातित कर दिया अर्नाल्ड

11 दिन बीत गये। बग्वाल से ईगास आ गयी। जिनेवा से अर्नाल्ड आ गया, लेकिन रुड़की से माइनिंग विशेषज्ञ साइंसटिस्ट नहीं बुलाए गये। इन बेचारे वैज्ञानिकों की कद्र ही नहीं। दो बार प्रस्ताव भेजा, लेकिन वैज्ञानिक लोग गंगनहर के किनारे स्थित सोलानी पार्क में धूप सेकते रहे कि अब बुलाया कि तब बुलाया। भले ही कुछ लोगों को इंडिया नाम से चिढ़ हो रही हो और वो जबरदस्ती अपने नौनिहाल को आई मीन भारत सिखा-पढ़ा रहे हों लेकिन यह भी कटु सत्य है कि चूंकि भारतीय वैज्ञानिकों का नाम जैक्सन, अर्नाल्ड, मैकेंजी जैसा नहीं है तो उनकी कद्र ही नहीं है।

जो बात और जो काम अर्नाल्ड डिक्स कर रहे हैं, उससे भी बेहतर ढंग से और कम समय में रुड़की के वैज्ञानिक कर सकते थे। मुझे ऐसा विश्वास है। लेकिन उनको मौका ही नहीं दिया गया। जबकि रुड़की स्थित सेंटर इंस्टीट्यूट आफ माइनिंग एंड फ्यूल रिसर्च में दो वैज्ञानिक तो देश भर में ख्याति प्राप्त हैं और उनसे माइनिंग और टनल को लेकर विश्व भर से पूछा जाता है। अर्नाल्ड का विरोध नहीं है वह इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन जिनेवा के अध्यक्ष हैं। उन्होंने लिनडिन पर कहा, 41 लोगों को बचाने जा रहा हूं। हिमालय के पहाड़ खतरनाक हैं, दुखी हैं। अर्नाल्ड की क्षमताओं पर सवाल नहीं है। सवाल यह है कि हमें अपनों पर क्यों विश्वास नहीं? 11 दिन ले लिए, रुड़की के वैज्ञानिकों का दावा है कि यह काम महज दो-तीन दिन का था और इसके लिए आंगर और भारी-भरकम मशीनों की भी जरूरत नहीं थी।

एक बात समझ से परे है कि जब भी मानवीय भूल से पहाड़ दरकता है तो इस आपदा को क्लामेट चंेंज या ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ दिया जाता है। भई कोई अनपढ़ भी बता देगा कि पहाड़ में सुरंग नहीं बननी चाहिए। यदि बने तो उसके लिए सुरक्षा के पूरे मानक होने चाहिए। सिल्कयारा सुरंग में सुरक्षा मानकों की न तो निगरानी की गयी और न ही मानकों का पालन हुआ। नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी और एनएच अधिकारियों की सांठ-गांठ है। जब पीएम मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने इस सुरंग को पास किया था तो उसमे ंउल्लेख था कि एस्केप पैसेज यानी बचाव का रास्ता भी होना चाहिए। फिर इसकी अनदेखी क्यों की गयी? 11 दिन बाद भी कंपनी के किसी भी अधिकारी को अरेस्ट नहीं किया गया। यह भी तय नहीं है कि बचाव कार्य में हुआ खर्च क्या कंपनी से वसूल होगा या जनता की जेब से ही इसकी भरपाई होगी? सबसे बड़ा सवाल यह है कि बड़ी गलती को क्लामेट और हिमालय की आपदाओं से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। जबकि यह सरासर कंपनी की बड़ी गलती है।

हिमालय में अत्याधिक छेड़छाड़ हो रही है क्योंकि यहां सड़कों, सुरंगों और बांधों की आड़ में मौद्रिक तरलता को ठिकाने लगाया जाता है। इस कथित विकास की कीमत आम जनता चुका रही है। अफसर और नेता आपदा में भी अवसर तलाशते हैं। बजट मिलता है, उसे ठिकाने लगाया जाता है। इसलिए सिल्कयारा सुरंग को कंपनी को दोषी ठहराने की बजाए इसे आपदा से जोड़ने की कवायद की जा रही है ताकि दोनों हाथों में लड्डू हों।

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